भाव हैं  उदिग्न मन की 
ही तपन,
साधना स्वर ही
रहा संगीत का धन.
लय अगर बस छन्द
का श्रृंगार कर दे,
गीत क्या  है 
सृष्टि का  नूतन सृजन.
बना कर देह का
दीपक,
जलाओ स्नेह की
बाती,
मिटे मन का
अँधेरा भी,
प्रकाशित
हो  धरा सारी|
दिवाली
रोज  मन जाये,
बढ़े धन धान्य
जीवन में,
प्रभुल्लित
आप  रह पायें,
यही शुभकामना
मन की |
हमें  सद 
बुद्धि  ऐसी दें,
करें   उपकार 
जीवन  में,
बढ़ें हम सब
प्रगति पथ पर,
   यही
है  चाह 
बस मन में  |
निरोगी आप तन
मन से,
करें  निस्वार्थ 
सेवा  भी,
रहूँ  स्मृति पटल 
पर मैं,
यही  है 
प्रार्थना  सब से |
यही है
प्रार्थना मेरी |
हरिमोहन गुप्त