तिमिर स्वयम छटता जाता है, पा कर पुंज प्रकाश.
जटिल प्रश्न तक हल हो जाते, लेकर द्दढ विश्वास l
विषम और गम्भीर परिस्थिति माप दण्ड है सच के,
जीवन में द्दढ संकल्पों से, होता बुद्धि विकास l
कागज पर ही लुप्त हो गये उनके वादे,
और सामने केवल इनके गलत इरादे l
आदर्शों की कसमें उनकी सभा मन्च तक,
अन्तर मन काले हैं, ऊपर सीधे सादे l
जिन्दगी का मौत से ऐसा लगाव है,
बदले हुये लिवास में आना स्वभाव है l
रुक कर सफर में कोई सुस्ताने लगे पथिक,
मैं सोचता हूँ मौत ही ऐसा पड़ाव है l
जीवन में संघर्षों का क्रम चलता आया है,
और रात की गोद प्रात पलता आया है l
चिर अशांति या पीड़ित मन आलोकित करने,
सम्बन्धों का स्नेह सदा जलता आया है l
कलुषित असत विचारों को बस धोते जाओ,
बीज सफलता के जीवन में बोते जाओ l
तुममें अहंकार न पनपे बस जीवन में,
है मेरा आशीष अग्रसर होते जाओ l
पुत्र पिता से जाना जाता यही नियम है,
पिता पुत्र से जाना जाये होता कम है l
पिता धन्य है जिसका पुत्र सवाया होता,
दशरथ जाने गये राम से यह अनुक्रम है l
कौन जानता था,कि दुश्मन पर पिघल जाओगे,
देश द्रोहियों के विचारों में ढल जाओगे |
आज क्या हो गया तुम्हें तुम्हारे साथियों को,
विशवास नहीं होता कि इतना बदल जाओगे |
कुछ करना है जिसे धरा पर उसे कहाँ विश्राम,
सदा कार्यरत रहने से ही मिल सकते हैं राम l
भोतिक युग में आज व्यस्त जीवन है सबका,
इतना समय कहाँ किसको है, लेले जो हरिनाम
l
पहली बार पाँव कँपते हैं, जब हम रंग मन्च पर जाते,
किन्तु सतत अभ्यासी बन जो, कला मन्च का धर्म निभाते l
द्दढता, साहस, सदाचरण से, तन मन उत्साहित हो जाता,
जीवन में निर्भीक रहे जो, सदा सफलता वे नर पाते l
लालच बुरी बला है इसको सभी जानते,
अर्ध छोड़ सारे को धावे बुरा मानते l
किन्तु स्वार्थ का संग्रह से नजदीकी नाता,
इसीलिये तो सभी फँसे, बस यही चाहते l
यही सत्य है, लालच संग्रह को उपजाता,
और स्वार्थ फिर चिनगारी बन उसे जलाता l
संग्रह तब फिर कहाँ रोक पाया लालच को,
यह मन भी बेकाबू हो कर उसे बढाता l
काम, क्रोध या घृणा भाव ही, संयम रहित विचार,
चिंता में गिरता है प्राणी, पाता कष्ट अपार |
पहिले आत्म निरीक्षण कर लो, दुश्चिन्तायें छोड़,
करती हमको सद प्रवृत्ति ही, भवसागर से पार |
दूसरों की रोटियों पर मत पलो
बाँट कर खाओ,सदा फूलो फलो |
संगठन में शक्ति है,समझो इसे,
एक ही है रास्ता, मिल कर चलो |
मन के भीतर ज्ञान रूप में, परम तत्व का सदा निवास,
परम शान्ति पाता है प्राणी, सहज मुक्ति हो यह आभास |
सुख,दुख,हानि,लाभ,यश,अपयश, यही कर्म फल यह ही जान,
दुख, अशांति या क्लेश रहें क्यों? मन में हो उसका विश्वास |