Wednesday 25 December 2019

 लघु कथा
       सास बहू की रोज रोज की चिकचिक से तंग आ कर राकेश ने माँ को वृद्धाश्रम में भरती करा दिया, भरपूर पैसे उस आश्रम को देता कि माँ को किसी प्रकार की परेशानी न हो, लेकिन माँ का मन उस आश्रम में नहीं लगता था | आज उसका पुराना नौकर रामू जो अब ऐक ढावा चलाता है, उस आश्रम में साहब की माँ को देखने आया, माँ ने रोते रोते रामू से कहा “रामू मझे इस आश्रम से निकाल कर अपने घर ले चल मैं वहां सुख से रह लूंगी” रामू ने कहा “ मालकिन कहाँ आप और कहाँ मैं, यहाँ पर आप को सभी सुविधायें हैं, मैं तो ऐक ढावा चलाता हूँ, वही रात में घर बन जाता है, जैसे तैसे जिन्दगी चल रही है” इस पर माँ ने कहा “अगर मन में आनन्द नहीं तो कोई सुख नहीं, तुम साहब को मत बताना” मैं भी आश्रम के मैनेजर से कहे देती हूँ कि पैसा तुम्हें राकेश से मिलता रहेगा, लेते रहना यदि कभी वह पूंछे तो कह देना की आश्रम के खर्चे से माँजी हरिद्वार गंगा स्नान करने या तीर्थ करने गई हैं |
       राकेश की माँ रामू के ढावे पर आ गई और भोजन बनाने की जिम्मेदारी ले कर सहायकों के साथ दिन में काम में जुट जाती, रात्रि में सुख पूर्वक सोती |  अच्छा भोजन बनने के कारण रामू का ढावा चल पड़ा, दूर दूर से लोग भोजन करने के लिये आते |
       राकेश भी महीने में चार छै बार इसी ढावे में आते और अपना मन पसन्द भोजन करते, विशेष बात यह कि राकेश को कभी बताने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, बिना बताये ही उन्हें वही भोजन जो उन्हें पसन्द आता था मिल जाता था |
      राकेश का आज आफिस के काम में मन नहीं लग रहा था, घर से आया  लंच बाक्स न खोल कर रामू के ढावे पर आगया, रामू ने देखा तो पानी पिलाने के बाद कहा साहब खाना लगा दूँ, आज राकेश का मन भोजन में कढ़ी चावल खाने का था पर उन्होंने  रामू से कुछ कहा नहीं बस इतना ही कहा भोजन तो करना ही है | थोड़ी देर बाद थाली में वही सब कुछ था जिसे उसका मन चाह रहा था | रामू बोला “साहब और कुछ लाऊँ, आप खाइये इसके बाद मैं आपके लिये अदरक की चाय और पकोड़े लाऊँगा”| चाय पीने के बाद राकेश ने कहा “रामू तुमने अपने ढावे में बहुत अच्छा कुक रक्खा है, सच मानो जब भी आता हूँ, मुझे वही खाना मिल जाता है, कभी बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी, मैंने कई बार कहा कि अपने कुक से मिलवाओ मैं उसे ईनाम देना चाहता हूँ, पर तुम कभी मिलवाते ही नहीं, आज मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं सुनूँगा, मैं स्वयं रसोई में जा कर उससे मिलूँगा | राकेश ने जब अन्दर जा कर देखा तो उसकी ओर पीठ किये हुये माँ खड़ी थी | राकेश ने कहा माँ तुम यहाँ हो, हर बार सोचता था कि यह तो केवल माँ ही जान सकती है की उसके पुत्र को आज क्या खाना है, चलो अब घर चलें मैं ही गलत हूँ, सोचता था कि आश्रम में तुम सुख से रहोगी, पर सच तो यह है कि जो सुख और आनन्द घर में है वह अन्यत्र नहीं हो सकता | चिक चिक क्या तुम्हारे साथ क्या मेरे साथ होती ही रहेगी पर मैं न तुम्हें छोड़ सकता और न तुम्हारी बहू को, कुछ तुम बहू को समझाना और कुछ मैं तुम्हारी सहायता करूंगा |           

Tuesday 24 December 2019

क्मजर्फो से बात न करना,


जिन्हें नहीं परवाह देश की,जिन्हें नहीं दरकार मुल्क की,
मेरी नेक सलाह यही है,उनसे हरदम दूरी रखना |
 जिनकी सोच संकुचित ही है,पीर न जाने वे औरों की, उनसे क्या उम्मीद करें हम,बस उनसे तो बच कर रहना
जिनका दामन पाक नहीं है,जिनकी नियति साफ़ नहीं है,
उनसे बचना ही अच्छा है, उनसे तुम जज्वात न कहना |
कितने भी समाज सेवी हों, यदि उनके हैं काले धन्धे,
वे निश्चित विध्वंस करेंगे, उनकी तुम परवाह न करना |
कितना ही मीठा बोलें  वे, यदि वे अन्दर से हैं काले,
उनके कुछ सिध्दान्त नहीं हैं,समय मिले तो उन्हें परखना
सदा स्वार्थ में जो डूबें हों, मीठा जहर घोलते हरदम,
आस्तीन में साँप पालते, उनको सदा उजागर करना |
कर्जा ले ले कर बेंकों से, देश बेचने की जो सोचें,
उनको कड़ी सजा दिलवाएं, कमजर्फो से बात न करना |

Thursday 19 December 2019

यह विशेषता राम की,

                        यह विशेषता राम की, उनको प्यारे भक्त,
                        जितना हो विश्वास तो, उतने बने सशक्त l
राम कृपा जिस हुई, बदला उसका ढंग,
नहीं सुहाता और कुछ, चढ़ता ऐसा रंग l 
                        पारस मणि श्री राम हैं, सत्संगति संयोग,
                        कंचन मन हो आपका,करलो तुम उपयोग l
राम नाम की ओढनी, मन में स्वच्छ विचार,
फिर देखो  परिणाम  तुम, बहे प्रेम की धार l
 

Tuesday 17 December 2019

बच कर चलो,

तुम स्वयम बच कर चलो, चटकी हुई दीवार है
कोन जाने  कब  गिरे, कमजोर  ही आधार है l
              जाने कितनी सूरतें आती हैं, ख्वाबों में मेरे,
              ऐक ही तस्वीर जिसमें, आप का  दीदार है l
क्यों बढ़ावा दे  रहे आतंक को हर बार तुम,
सबको जाना ऐक दिन, नश्वर यही संसार है l
             जो भी आया है धरा पर,जायगा वह ऐक दिन,
             रोशन करो ये चन्द रिश्ते, आपसी व्यवहार है l 
चन्द लम्हों  की है खुशबू, बाद में झरना इन्हें,
मत उगाओ फूल  ऐसे, संग  जिनके खार है l                                         

Saturday 14 December 2019

मन्दिर के पट बंद कर दिए,


मन्दिर के पट बंद कर दिए, कैसे हम दर्शन कर पायें,
उनकी छवि जो बसी हृदय में, कैसे हम वन्दन कर पायें|
            आये हैं हम बहुत दूर से,केवल दर्शन की अभिलाषा,
            सबके वे आराध्य रहे हैं, समझ सकेंगे मन की भाषा |
थोड़ी देर कपाट खोल दो, हम सब उन्हें नमन कर पायें,
मन्दिर के पट बंद कर दिए, कैसे हम दर्शन कर पायें |
             नहीं माँगना कुछ भी उनसे, उनका दिया सभी कुछ है बस,
             सब निरोग हैं, घर में माया, जीवन में  बहता है मधुरस |
धन्यवाद उनका करना है, कैसे बिना मिले हम जाएँ,
मन्दिर के पट बंद कर दिए,कैसे अभिनन्दन कर पायें|
             जब  समानता संविधान  में, चाहे नर हो  या हो नारी,
             दर्शन का अधिकार सभी को, बना रखा क्यों अंतर भारी |
सम्मुख आ कर कैसे लौटें, इस पर भी चिन्तन कर पायें,
मन्दिर के पट बंद कर दिए, कैसे हम दर्शन  कर पायें |
              हम निराश हो करके लौटें, यह कैसे सम्भव हो पाये,
              जो भी आस बसी है मन में, विनती ही सब उन्हें सुनायें |
आप कृपा कर द्वार खोल दें, हम सब पद वन्दन कर पायें,
मन्दिर के पट बंद कर  दिए, कैसे हम  दर्शन  कर  पायें |


Wednesday 11 December 2019

जग में दो दिन का यह नाता


जग में,दो दिन का यह नाता,
प्राणी,क्यों मन को भरमाता l
        जब तक साँस चले जीवन की,
        तब तक आस रहे इस तन की,
               तब तक साथ निभाता,
            प्राणी,क्यों मन को भरमाता l
बन्धु, सखा सब यहीं रहेंगे,
भार्या संग सब यहीं जियेंगे l
                 पुत्र न संग में जाता,
           जग में,दो दिन का यह नाता l 
जब तक इस शरीर में बल है,
नाता तब तक  ही  केवल है,
                  कोई न फिर सहलाता l
इस शरीर की सुन्दर काया,
मृग मरीचका सी यह माया,
                  धू धू कर जल जाता,
             प्राणी,क्यों मन को भरमाता l

माया, ममता छोड़ो प्राणी,
केवल प्रभु ही हैं कल्याणी,
                 वह ही सबका दाता,
          प्राणी, क्यों मन को भरमाता l
जैसी करनी, वैसी भरनी,
पार करे वह  ही वैतरणी,
                    सदा सत्य जो गाता,
जिस दिन प्राण निकल जायेंगे,
साथी संग न चल पायेंगे,
               मरघट तक पहुंचाता l
               कोई संग    जाता l
जग में दो दिन का यह नाता.
प्राणी, क्यों मन को भरमाता l

Thursday 5 December 2019

सोच रहा क्या मन में


पिंजरा तो खाली करना है, रहता किस उलझन में,                                                                                      
                 प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
विखर जांयगे फूल  सभी जो, महक रहे उपवन में,
पंछी कहता उड़ो यहाँ  से, क्यों  रहता  बन्धन में,
                  प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
व्याकुल हो यह  ही कहता है, क्या  है मैले तन में,
अगले पल की खबर नहीं  है, चला जायगा क्षण में,
                   प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
कौन देख पाया है कल को, व्याप्त वही कण कण में,
आस दूसरे की  क्या  करना, खुद  देखो  दर्पण  में,
                    प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
जाने  की  बारी  जब आई, लिप्सा क्यों  है  धन में,
अब  भी  समय सोच ले प्राणी, रहना  नहीं चमन में,
                     प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
समय  बीत  जायेगा  तब  फिर, पछताये  जीवन  में,
चार दिनों  का  समय मिला था, गँवा दिया अनबन में,
                      प्राणी, सोच रहा क्या मन में l

Friday 29 November 2019

प्रति फल,


कंटक मग पर बहती सरिता सबको निर्मल जल मिलताहैं 
पत्थर चोट सहे पर फिर भी हमें वृक्ष  से फल मिलता हैं 
जो पर हित में रहते तत्पर .उनका ही भविष्य  उज्वल हैं 
भला करो तो लाभ मिलेगा ,इसका फल प्रति पल मिलता हैं

Saturday 23 November 2019

जुगुनू जैसा है प्रकाश बस,


जुगनू जैसा है प्रकाश बस,
मिटा न तिल भर भी अँधियारा ,
गर्व बढाया मन में इतना,
सूरज को तुमने ललकारा।
        यह गर्वोक्ति न ले लो मन में,
        तुम्हीं बड़े हो सारे जग में,
        यहाँ किसी ने भी नापी थी,
        सारी धरती को इक पग में।
इसीलिये तुमसे कहता हूँ,
बाँट सको बाँटो उजयारा।
         अंहकार ही था रावण को,
         स्वर्ग नसेनी लगवाउगा,
         मैं त्रैलोक्य जीत कर पल में,
         विजय पताका फहराउगा।
वह रावण भी नहीं रह सका,     
सागर तो अब भी है खारा।
           बहुत बड़ा हूँ सागर ने जब,
           अंहकार मन में उपजाया,
           ऋषि अगस्त ने एक घूँट में,
           सोख लिया, उसको समझाया।
          
जग में ऐसे बहुत लोग हैं ,
जिनने बदली युग की धारा।    
           मृत्यु जीतने के ही भ्रम में,
           छै पुत्रों को जिसने मारे,
           नहीं सफल हो पाया फिर भी,
           वह विपत्ति को कैसे टारे।
नहीं कंस रह पाया जग में,
और कृष्ण ने उसे पछाड़ा।
            परोपकार का भाव रहे तो,
            हो जाये ज्योर्तिमय यह जग,
            अंधकार हो दूर जगत से,
            रहे प्रकाशित अब सारा जग।
सूरज ने तम को हरने हित,
जलना ही उसने स्वीकारा।
इसीलिये तुमसे कहता हूँ
बाँट सको बांटो उजयारा |

Wednesday 20 November 2019

बड़ों से जुडो

 अगर चाहते  प्रगति, बड़ों से  खुद  को जोड़ो,
  काम आज का आज, नहीं कल पर तुम छोडो |
  पूरा  जीवन  पड़ा  हुआ  है, कल   कर लेंगे,
  यही  भाव   रोड़ा  बनता  है,  उसको  मोड़ो |
बारम्बार प्रयास करो  तो, मिले  सफलता,
चिंता और निराशा  छोडो, गई  विफलता.
असफलता से विमुख न हो,संघर्ष करो तुम,
जब अवसर अनकूल,प्रगति पर जीवन चलता |
 

Sunday 17 November 2019


            बाल दिवस
कोई राही बालक मुझको,
भीख माँगता मिल जाता था,
मैं बस उसको पास बुला कर,
इसी बात को समझाता था,
भीख माँगना बुरी बात है,
श्रम जीवी बन कर तो देखो,
मेहनत के बल जीना सीखो |
         ____
बाल दिवस, गोष्ठी आयोजित,
“रोको बालक श्रम” शीर्षक है |
अगर राह में कोई बालक,
श्रम करता ही दिख जायेगा,
उससे मैं अब क्या कह पाऊँ?
बालक छोडो तुम इस श्रम को,
जाओ  अब  स्कूल पास में,
यही उम्र तो पढने की है |
      _____
भरे गले से वह कहता है,
बूढ़ी माँ बीमार हमारी,
उसे समय से मिले दवाई,
तो श्रम अब अनिवार्य मुझे है,
घर पर छोटी बहिन अभी है,
तीनों को रोटी खाना है,
मजबूरी, श्रम तो करना है |
तुम्हीं बताओ, मैं कैसे अब,
चला जाऊं स्कूल, छोड़ कर-
माँ को और बहिन को,बोलो-
जा सकता स्कूल, बताओ ?
बाल दिवस प्रति वर्ष आयगा,
बस प्रश्नों को छोड़ जायगा |

Friday 8 November 2019

गजल


राम नामी ओढ़ कर, मैं ठग रहा होता जगत को,         
किन्तु मानव धर्म से  ही, हारता हरदम रहा बस l
              चाहता तो यह सफर मैं, पार कर लेता मजे से,
              गैर की  ही  रहनुमाई, ढूढ़ता हरदम  रहा बस l
मन्च के सम्मान सब मैं, प्राप्त कर लेता सहज ही,
चाटुकारों  से  हमारा, फासला  हरदम  रहा  बस l
              लूटता  मैं  आबरू,  झूठे  दिलासों  के  सहारे,
              किन्तु जो अन्तस् में बैठा, रोकता हरदम रहा बस l
आतंक का साया बना कर, चाहता यश कीर्ति पाना,
भाई चारा  प्रेम  ही, पुचकारता  हरदम  रहा  बस l
              स्वार्थ का सम्बल लिये मैं, पहुँच जाता बहुत ऊपर,
              स्वाभिमानी मन मेरा, धिक्कारता हरदम  रहा बस l
जो लुभाये मन्च को, सच वह कला मैं जानता था,
किन्तु अन्तरद्वन्द ही, दुतकारता हरदम रहा बस l
              झूठ के पेबन्द  से, सच  को छिपाना चाहता था,
              किन्तु अन्तर्मन मेरा, झकझोरता हरदम रहा बस l