जिसे
प्रेम जीवन से होता, वह सुधारता है
अपने को,
दृष्टिकोण
तो स्वयं बदलता, जीवित करता वह सपने को |
करो कर्म
उत्कृष्ट, साथ ही छवि अपनी हो स्वच्छ निरापद,
तभी
कर्मफल मिल पायेगा, शक्ति मिले उससे लड़ने
को |
कवि ही ऐसा प्राणी है जो, गागर में सागर को भरता
केवल वाणी के ही बल पर, सम्मोहित सारा जग
करता,
सीधी, सच्ची, बातें कह कर, मर्म स्थल को वह छू लेता
आकर्षित हो जाते जन जन, भावों में भरती है दृढ़ता l
पैर जब
कभी चादर से बाहर को आते हैं,
उसूलों से बड़े
जब ख्बाव हो जाते हैं |
परेशानी का
अनुभव तो देर से होता.
दुखित मन
आपका,स्वयं से आप कतराता |
बल पौरुष
के कारण जग में, नर ने माना श्रेष्ठ कर्म है,
धर्म भीरु
होने के
कारण, नारी कहती श्रेष्ठ धर्म है |
नहीं
कल्पना है यह कोरी, मानो तो विशवास अटल
है,
कोई
जान न पाया उसको, इसीलिए तो श्रेष्ठ मर्म है |
समझ है,
समस्या की तह तक जाने की,
शक्ति है,
समझने और
समझाने की |
बहकाने से
सदा सावधान रहना ,
कभी कोशिश
न करना आजमाने की |
योग,यज्ञ,जप,तप सभी, व्यर्थ उपाय तमाम,
बिना
परिश्रम किये ही, मिल सकते श्री राम l
उनके प्रति विश्वास यदि,मिल सकते श्री राम,
दर्शन देगें स्वयम वह, कटते कष्ट तमाम l
नहीं काम होता सफल,समझो मन की भूल,
राम भजन से मान लो,निश्चित हो अनुकूल l
राम चरण रज पा सके, कवि श्री “तुलसीदास”,
चरण वन्दना हम
करें, राम आयंगे पास l
रामचरित
मानस लिखा, तुलसी के हैं राम,
गुण
गायें हम राम के,मिले राम का धाम l
राम कथा लिख कर हुये, तुलसीदास महान,
हम भी कुछ ऐसा लिखें, अपनी हो पहिचान l
दया,धर्म अरु सत्य संग, साहस जिसके पास,
जिसमें है पुरुशार्थ तो, वह पण्डित यह आस l
रात जागते ही रहें, रोगी, कामी, चोर,
केवल कायर,दीन ही, सदा मचाते शोर l
लोभ और निर्लज्यता, गर्व संग है क्रोध,
मानवता की राह
में, वे बनते अवरोध l
स्वयम
वृति से जीविका, हों निरोग यह ठान,
ऋणी न
होना किसी के, ये सुख मान प्रधान l
बुधि विवेक युत मित्र हो,जिसे शास्त्र का ज्ञान,
संकट
में निस्वार्थ जो, मित्र उसी को मान l
जो
कृतज्ञ,संयम प्रमुख, हो संकल्प महान,
जिसकी जो सामर्थ हो. उतना करिये दान l
धर्म नित्य,सुख दुख अनित, नहीं रहेगा दोष,
छोड़ अनित,नित में रहे, तो मिलता सन्तोष l
मिथ्या आग्रह, कटुवचन, करे तीर का काम,
स्वाभाविक यह प्रतिक्रया, उल्टा हो परिणाम
धन संग्रह नहिं धर्म से, उसका करिये त्याग,
यथा सर्प
की केचुली, नहीं लगेगा
दाग l
धर्म पन्थ में बाँट कर, हमें किया बर्वाद,
ऐक नहीं
होने दिया, उपजा वादविवाद l
वे दोनों तो ऐक हैं, क्या रहीम क्या राम,
हम
में ही दुर्बुद्धि है, इसीलिये कुहराम l
मिटटी की यह देह है, सब में ज्योति समान,
क्या हिन्दू, क्या मुसलमा, क्यों होते
हैरान l
मद स्वभाव,कटु वचन हों, करें मर्म आघात,
पीड़ा पहुचे मनुज को, मिले सदा व्याघात l
दया,
धर्म, निर्भीकता, अगर आपके पास,
सारे अवगुण सिमट कर, बन जाते हैं दास l
जो भी चाहे शान्ति सुख,या चाहे आनन्द,
क्षमा,शील संग दया हो, पाओ परमानन्द l
जो चाहो
ऐकाग्रता, इच्छा शक्ति
प्रधान,
मन प्रसन्न यदि आपका, सुख दुख ऐक समान l
सिया राम छवि मन बसे,ऐसा करो विचार,
निराकार में देख
लो, राम रूप साकार l
सुयश राम का
काव्य है, कवि बनना आसान
बिन प्रयास लिख
जायगा,उनका सब गुण गान l
अब तक
जिसने भी लिखी,राम कथा निस्वार्थ,
पाया उसने परम
पद, हुआ यही चरितार्थ
तन्त्र मन्त्र सब व्यर्थ हैं, राम भजन है सार,
करके तो देखो स्वयम, पाओ स्वच्छ विचार l
साहब ने घर पर मुझे, बुलवाया है आज,
क्या ऐसे ही जांयगे, अपनी रखना लाज l
हम देते वे लेत
हैं, नगद किन्तु यह राज,
जिस दिन हम यों ही गये, बिगड़ जायगा काज l
वे कहते हैं हमें भी, ऊपर
देनें दाम,
बिना लिये कैसें करें, रोज हमें भी काम l
ऊपर तक
हिस्सा बंटा, शामिल हैं सब लोग,
इससे
सुबिधा सबई खों, कर लो तुम उपयोग |
आज राज में हो रहो, केवल बस अंधेर,
फाइल पे ना बजन हो, तो फिर समझो देर l
ऐक मेज से दूसरी, कुरसी तकती रोज,
कोई तो आकर फँसे, रहती उनकी खोज l
अब तो बाबू स्वयं ही, कहते हैं श्री मान,
फाइल आगे जायगी, तभी बने पहिचान l
अफसर को देना हमें, मजबूरी श्री मान,
बोलो
कैसे घर चले, मान लीजिये दान l
कोयल कू कू बोलती, चले बसंत बयार,
पीली
सरसों फूलती, धरती को सिंगार l
जाड़ो जाबे कों भयो, जे हे बा को कोप,
प्यार, रजइया छूट हैं, हो जे हैं सब लोप l
सरदी हा हा खा रई, जाबे को तैयार,
कुआ बाबरी में गिरे, हो जे बेड़ा पार l
होरी आबे खों भई, दिल हो रओ
बेचेन,
घर बारी से सोच रय, लड़ पें हैं अब नैन l
घर वारी रंगने हमें, मल हैं गाल गुलाल,
जाने कैसे आउत है, होरी है जा
साल l
पुरा
महुल्ला से नहीं, कोनउ है दरकार,
पाँच दिना घर में रहें, कर हैं सब मनुहार l
भली करी
जा नौकरी, घर से हो गय दूर,
घरवारी की याद में, हो रय हम
मजबूर l
होरी
आवे खों भई, छुट्टी
हो मंजूर,
घर कों जाने है हमें, संग रे हैं भरपूर l
पिछली साले का कहें, अफसर थो वे पीर,