Saturday 8 October 2022

गजल

 

  राम नामी ओढ़ कर

 

राम नामी ओढ़ कर, मैं ठग रहा होता जगत को,         

किन्तु मानव धर्म से  ही, हारता हरदम रहा बस l

       चाहता तो यह सफर मैं, पार कर लेता मजे से,

       गैर की  ही  रहनुमाई, ढूढ़ता हरदम  रहा बस l

मन्च के सम्मान सब मैं, प्राप्त कर लेता सहज ही,

चाटुकारों  से  हमारा, फासला  हरदम  रहा  बस l

     लूटता  मैं  आबरू,  झूठे  दिलासों  के  सहारे,

    किन्तु जो अन्तस् में बैठा, रोकता हरदम रहा बस l

आतंक का साया बना कर, चाहता यश कीर्ति पाना,

भाई चारा  प्रेम  ही, पुचकारता  हरदम  रहा  बस l

     स्वार्थ का सम्बल लिये मैं, पहुँच जाता बहुत ऊपर,

    स्वाभिमानी मन मेरा, धिक्कारता हरदम  रहा बस l

जो लुभाये मन्च को, सच वह कला मैं जानता था,

किन्तु अन्तरद्वन्द ही, दुतकारता हरदम रहा बस l

     झूठ के पेबन्द  से, सच  को छिपाना चाहता था,

     किन्तु अन्तर्मन मेरा, झकझोरता हरदम रहा बस l

 

                    डा0 हरिमोहन गुप्त

 

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