कर्म प्रधान मानते जग में, वे रहते सानन्द
सिद्धि साधना में रत जो हैं, पाते परमानन्द |
जागो,उठो,बढो तुम आगे, तुम्हें लक्ष्य तक जाना,
सत्य आचरण जो अपनाये, वही विवेकानन्द |
फासला घट जायगा, हमदम बनाओ,
हो सके तो तुम किसी का गम मिटाओ |
शान्ति सुख पा जावगे यह देखना तुम,
बस किसी के घाव पर मरहम लगाओ|
परोपकार में जीवन बीते, जिसको मिले सुभीता,
सुख,दुःख में जो रहा एक रस, समय एक रस बीता |
संयम नियम आचरण सम हैं, उसने जग को जीता,
जो संतृप्त करे औरों को, पनघट कभी न रीता |
लक्ष्य सामने रखने वाले,कभी नहीं रुकते हैं
जो श्रम के आदि हो जाते , कभी नहीं थकते हैं |
धीरे धीरे चलो , सामने लक्ष्य बनाओ निश्चित
कितनी भी कठिनाई आए , कभी नहीं झुकते हैं|
यश, अपयश विधि हाथ सोच जो व्यक्ति जिया करते हैं,
हानि, लाभ को छोड़ व्यक्ति कर्तव्य किया करते हैं |
जीवन या फिर मरण सदा से उसके हाथ रहा है,
सुख, दुःख में सम भाव, व्ही अमरत्व पिया करते हैं |
चढना है पहाड़ के ऊपर, झुक कर चढना होगा,
अगर चाहते मंजिल पाना, रुक कर चलना होगा |
अकड़ दिखा कर जो भी चलता, ठोकर खा गिर जाता,
लक्ष्य प्राप्ति हित हो प्रयास रत, गिर कर उठाना होगा |
हमको क्या करना है जग में, लक्ष्य बनाओ निश्चित,
जीना,मरना तो जीवन क्रम,भटके, हुये पराजित |
आये हैं किस हेतु धरा पर, इस पर करिये मंथन ,
व्यर्थ जायगा यह जीवन ही,फिर क्या मिले कदाचित |
हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा, यही बात है शास्वत,
दृष्टिकोंण बदलें हम अपना, इस में है अपना हित |
गुण अन्वेषण हो स्वभाव में, हम समाज में जाएँ,
घृणा, द्वेष, दुर्भाव त्याग कर, खुद को करें समर्पित |
जब विपत्ति आती है सिर पर,मन में चिंता, शोक,निराशा,
जब सम्पति आती है घर में, ईर्ष्या, द्वेष, मान की आशा |
तृष्णा बढती ही जाती है, संग्रह को ब्याकुल होता मन,
सुख मिलना दूभर हो जाता, धूमिल होती है अभिलाषा |
दोष दूसरों के मत देखो, झाँको अपने अन्दर,
मिथ्या अंहकार बढ़ जाता,क्रोध, घृणा आते घर |
देखो तुम अपने दोषों को, स्वयं सुधर जाओगे,
सामजिक अपराधी कोई, दण्ड दिलाओ जी भर |
जिसे भरोसा अपने पर है,वही सफल होता जीवन में,
इसे आत्मविश्वास कहा है, संयम रहता उसके मन में |
बल, पौरुष, संकल्प पास में, शक्ति आपके ही भीतर है
सभी सुलझती यहाँ समस्या, समाधान मिलता है क्षण में |
भावना में ही निहित भगवान् है ,
ज़िन्दगी का साथ ही सहगान है | दर्द बांटे दींन हीनों का कोई ,
तब कहीं मिलता उसे सम्मान है |
जब कभी भी यदि बिगड़ते आचरण,
स्वार्थ लिप्सा का तने यदि आवरण |
तो आज मानव धर्म समझाएं उसे
दायित्व है अपना, करें हम जागरण |