हो नीर क्षीर
विवेक पावन ध्येय है,
“युग चेतना” हो तो सफल
उद्देश्य है l
सद बीज से अंकुरित वटवक्ष की,
उपलब्धि का
परिणाम का ही श्रेय है l
सोच रहा क्या मन में ?
पिंजरा तो खाली करना है, रहता किस उलझन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
विखर जांयगे फूल सभी जो, महक
रहे उपवन में,
पंछी
कहता उड़ो यहाँ से, क्यों रहता
बन्धन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
व्याकुल हो यह ही कहता है, क्या है मैले तन में,
अगले पल की खबर नहीं है, चला
जायगा क्षण में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
कौन देख पाया है कल को, व्याप्त वही कण कण में,
आस दूसरे की क्या करना, खुद
देखो दर्पण में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
जाने की बारी
जब आई, लिप्सा क्यों
है धन में,
अब भी समय सोच ले प्राणी, रहना नहीं चमन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
समय बीत जायेगा
तब फिर, पछताये जीवन
में,
चार दिनों का समय मिला था, गँवा
दिया अनबन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में |
महात्मा
गांधी के प्रति श्रद्धान्जलि--
एक प्रश्न जाग्रत
था मन में,
मानव
क्या जिन्दा रहता है,
मर
कर भी इस जग में ?
रुक
जाती है श्वास.
हृदय
स्पन्दन रुकता,
लेकिन
कुछ के वाणी के स्वर,
गूँज
रहे रग रग में |
मेरा
कुछ ऐसा विचार है,
प्राणी
के ही कर्म और गुण जिन्दा रहते,
मिट्टी
की यह देह मरे,मरे जाए तो क्या?
जग
के सम्मुख वाणी के स्वर,
मानवता
जिन्दा रहती है |
जब
तक हममें,
सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया
का भाव,
धरा
पर धर्म कहाए,
विश्व
बन्धु का पाठ, परस्पर प्रीत बढ़ा
कर,
सुख
समृद्धि, शान्ति हित जीवन,
सन्तत
ऐसी फसल उगाये |
हिन्दू,मुसलमान, ईसाई,
हरिजन
को भी गले लगा कर,
कहें
परस्पर भाई भाई,
ऐसे
स्वस्थ विचार अगर जीवित हैं मन में,
तो
गान्धी जिन्दा हैं मानो,
हम
सबके ही तन में |
इसीलिए
तो शायद गांधी नहीं मरे हैं,
नहीं
मरेंगे |
युग
युग तक उनके चरणों में,
जाने
कितने शीश झुकेंगे |
डा0 हरिमोहन
गुप्त
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