समस्या पूर्ति दोहा द० हरिमोहन गुप्त
“सामाजिक”
भाई ,भाई से लड़ें,
अलग अलग हों द्वार,
अपना घर बंट जाय तो
,कब रहता है प्यार l
कल तक
सबमें प्रेम था, आदर था सदभाव,
अलग अलग अब हो गये, बदले सभी स्वभाव l
आँगन में दीवाल हो,
सभी चाहते आज,
अपने अपने रास्ते,
अपने अपने काज l
तार तार ही हो रहे, अब सितार के तार,
ऐसे
घर भी कलह से, हो जाता बेजार l
मात, पिता को
बाँटते, कैसे हो निर्वाह,
कैसे हम रह पायंगे,
कहाँ गई वह चाह l
बंटबारा ऐसा किया, हुई परिस्थिति दास,
माता रक्खें आप ही, पिता हमारे पास l
पास पड़ोसी कह रहे,
देख हमारे ढंग,
देखो इनके भी हुये,
चेहरे अब भदरंग l
कैसे सिर ऊँचा करें, झुके हमारे शीष,
यही चाहते सभी, मन में थी यह टीस l
सास बहू में हो रहा,
आपस में टकराव,
घ में पंचायत जुड़ी,
बना रहे सदभाव l
सास
बहू में हो रही, अब तो नित तकरार,
पुत्र
तुम्हारा है कहाँ, पति अब
दावेदार l
दोनों में कोई नहीं,
झुकने को तैयार,
पिता,पुत्र भी मौन
हैं, देख रहे हैं रार l
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