राम नामी ओढ़ कर, मैं
ठग रहा होता जगत को,
किन्तु मानव धर्म
से ही, हारता हरदम रहा बस l
चाहता तो यह सफर मैं, पार कर लेता
मजे से,
गैर की ही
रहनुमाई, ढूढ़ता हरदम रहा बस l
मन्च के सम्मान सब
मैं, प्राप्त कर लेता सहज ही,
चाटुकारों से
हमारा, फासला हरदम रहा बस
l
लूटता मैं
आबरू, झूठे दिलासों
के सहारे,
किन्तु जो अन्तस् में बैठा, रोकता
हरदम रहा बस l
आतंक का साया बना
कर, चाहता यश कीर्ति पाना,
भाई चारा प्रेम
ही, पुचकारता हरदम रहा बस
l
स्वार्थ का सम्बल लिये मैं, पहुँच
जाता बहुत ऊपर,
स्वाभिमानी मन मेरा, धिक्कारता
हरदम रहा बस l
जो लुभाये मन्च को,
सच वह कला मैं जानता था,
किन्तु अन्तरद्वन्द
ही, दुतकारता हरदम रहा बस l
झूठ के पेबन्द से, सच
को छिपाना चाहता था,
किन्तु अन्तर्मन मेरा, झकझोरता
हरदम रहा बस l
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