Friday, 8 November 2019

गजल


राम नामी ओढ़ कर, मैं ठग रहा होता जगत को,         
किन्तु मानव धर्म से  ही, हारता हरदम रहा बस l
              चाहता तो यह सफर मैं, पार कर लेता मजे से,
              गैर की  ही  रहनुमाई, ढूढ़ता हरदम  रहा बस l
मन्च के सम्मान सब मैं, प्राप्त कर लेता सहज ही,
चाटुकारों  से  हमारा, फासला  हरदम  रहा  बस l
              लूटता  मैं  आबरू,  झूठे  दिलासों  के  सहारे,
              किन्तु जो अन्तस् में बैठा, रोकता हरदम रहा बस l
आतंक का साया बना कर, चाहता यश कीर्ति पाना,
भाई चारा  प्रेम  ही, पुचकारता  हरदम  रहा  बस l
              स्वार्थ का सम्बल लिये मैं, पहुँच जाता बहुत ऊपर,
              स्वाभिमानी मन मेरा, धिक्कारता हरदम  रहा बस l
जो लुभाये मन्च को, सच वह कला मैं जानता था,
किन्तु अन्तरद्वन्द ही, दुतकारता हरदम रहा बस l
              झूठ के पेबन्द  से, सच  को छिपाना चाहता था,
              किन्तु अन्तर्मन मेरा, झकझोरता हरदम रहा बस l

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