Thursday, 4 June 2020

बुन्देली में चिट्ठी

   “चिट्ठी”
चरन छुअत हैं हमइ इते सें,
          सो सब ही स्वीकारो,
कैसे दद्दा बाई उते हैं,
          कैसो हाल तुम्हारो.
कैसी भइ जा साल फसल,सब-
          कागज पे लिख दइयो,
साहूकार खों कछु दे पेहो,
          हमको इतइ बतइयो.
सोची थी जा साल कछू तो,
           तनखा बढ के मिल है,
कछू भेज दें हैं, हम तुमखों,
           मन सबको बस खिल है.
लेकिन का केदें हम भइया,
          महँगाई ने खा लओ,
रोजइ सोचत कछू बचा लें,
          हाथ कछू नइ आ रओ.
सात हजार कमरा के दे रय,
          सात हजार खाबे के,
तीन हजार मोटर के लग रय,
           बस दफ्तर जाबे के,
कपड़ा तो हम घरइ धोऊतइ,
           बाहर प्रेस करा रय,
पाँच हजार ऊपर उठ जातइ,
           कछू जोर नइ पा रय.
सबरी तनखा भुक हो जातइ,
           का हम तुमसें कै दें,
सोचत सोचत प्रान सुखा लय,
           साँची हम सब कै दें.
पर होनी खों का हम कै दें,
           इते पर रहे लाले,
खूब जुगत से खरचा कर रय,
           पाउन पर गय छाले.
सोची थी दिल्ली में जा कें,
          रुपया खूब कमा हैं,
सबरे खरचा काट कूट कें,
          रुपया इते बचा हैं.
देखो संजा के कऊँ जा के,
          कोनउ जुगत लगा हैं.
दो घंटा बस उते काम कर,
          कछू जोर हम पा हैं,
धीरज धरियो जा साले हम,
          दस हजार पहुँचा हैं,
कछू जोर कें तुम दे दइयो,
          करजा सबइ मिटा हैं.
जादा का हम लिख दें भइया,
          बाई दु:ख न पाबें,
दद्दा सें अब काम बनत नइ,
             बैठे बैठे खाबें.
भोजी के हम चरन छुअत हैं,
             सुख से तुम सब रहियो,
चुन मुन, गुड्डू रहें प्यार सें,
             आसिस मेरो कहियो.
    

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