घर के भीतर बैठकर, व्यर्थ मचाते शोर,
इस
पर मंथन तो करो, भारत क्यों कमजोर l
प्रजातन्त्र पलता यहाँ, सभी
इरादे नेक,
मानवता के नाम पर, नहीं हो सके ऐक l
प्रजा
तन्त्र में अब यहाँ, सुनता कौन पुकार,
आपा
धापी हो
रही, मचता हाहा कार l
सरे आम अब हो रहा, गुंडों का
उत्पात,
शासन तक उनकी पँहुच, कोन करे अब बात l
गाली
आभूषण बनी, उनकी है
सरकार,
किसकी
हिम्मत आ सके, बीच बात तलवार l
भला चाहते दीजिये, हफ्ता गुण्डा टेक्स,
दान पात्र में डालिये, होना अगर
रिलेक्स l
सब
प्रदेश अब जल रहे, दंगा है अब आम,
लोक
सभा को जीतना, उससे हम को काम l
कोई
विधि अपनायंगे, रीत गहें अनरीत,
आबादी
मरती रहे, जो अपने, सो मीत l
वही
सिर्फ अपने यहाँ, गाए जो भी गीत,
पार्टी
मुखिया हमीं हैं, यह ही है जगरीत l
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