दोष
दूसरों के मत देखो,
झाँको अपने अन्दर,
मिथ्या
अंहकार बढ़ जाता,
क्रोध, घृणा आते घर |
देखो
तुम अपने
दोषों को, स्वयं सुधर जाओगे,
सामजिक अपराधी
कोई, दण्ड दिलाओ जी भर |
जब
विपत्ति आती है शिर पर, मन में चिंता, शोक, निराशा,
जब सम्पति
आती है घर में, ईर्ष्या, द्वेष, मान की आशा |
तृष्णा
बढती ही
जाती है, संग्रह को ब्याकुल होता
मन,
सुख मिलना
दूभर हो जाता, धूमिल होती है
अभिलाषा |
हम
सुधरेंगे, जग सुधरेगा, यही बात है शास्वत,
दृष्टिकोंण
बदलें हम अपना, इस में है अपना हित |
गुण
अन्वेषण हो स्वभाव में, हम समाज में जाएँ,
घृणा,
द्वेष, दुर्भाव त्याग कर, खुद को करें समर्पित |
हमको क्या
करना है जग में, लक्ष्य बनाओ निश्चित,
जीना, मरना
तो जीवन क्रम, भटके, हुये पराजित |
आये हैं किस हेतु धरा पर, इस पर करिये मंथन |
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