पिंजरा तो खाली करना है, रहता किस उलझन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
विखर जांयगे फूल
सभी जो, महक रहे उपवन में,
पंछी कहता उड़ो यहाँ से, क्यों
रहता बन्धन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में l
व्याकुल हो यह
ही कहता है, क्या है मैले तन में,
अगले पल की खबर नहीं है, चला जायगा क्षण में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में
l
कौन देख पाया है कल को, व्याप्त वही कण कण में,
आस दूसरे की
क्या करना, खुद देखो
दर्पण में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन में
l
जाने
की बारी जब आई, लिप्सा क्यों है धन
में,
अब
भी समय सोच ले प्राणी, रहना नहीं चमन में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन
में l
समय
बीत जायेगा तब
फिर, पछताये जीवन में,
चार दिनों
का समय मिला था, गँवा दिया अनबन
में,
प्राणी, सोच रहा क्या मन
में l
डा0 हरिमोहन गुप्त
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