दीपक
दीपक तल में तम आश्रित कर,
जग में उजयारे को बाँटो,
प्रेम और सदभाव ज्योति में,
घृणा, द्वैष को ही तो छांटो l
तिल तिल कर तुम जलते रहते,
किन्तु धरा को करो प्रकाशित,
बिना भेद के पियो अँधेरा,
और सदा रहते
अनुशाषित l
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“तमसो मा ज्योर्तिमय” जग हो,
इसको ही तो गाते रहते,
बाधायें हों पार पन्थ
की,
इसको ही दुहराते रहते l
मूल भावना यह प्रकाश हो.
जैसे भी जग हो आलोकित l
क्या होता उत्सर्ग व्यर्थ,जब
सदा रहो तुम ही अनुपालित l
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